Type Here to Get Search Results !

नील विद्रोह कब और क्यों ? Indigo Revolt

0
नील विद्रोह या आन्दोलन भारतीयों किसानों द्वारा ब्रिटिश नील उत्पादकों के ख़िलाफ़ बंगाल में किया गया।

नील विद्रोह कब और क्यों ?

  1. कब और क्यों ?
  2. नील आयोग ।

जरूर पढ़ लें :  प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रमुख स्त्रोत

 कोहिनूर हीरे का इतिहास  : हिंदी में  Download PDF

नील विद्रोह (1859-1860)

1857 के विद्रोह के पश्चात प्रथम संगठित विद्रोह बंगाल में नील की खेती करने वाले किसानों द्वारा किया गया।
नील विद्रोह कब और क्यों
नील विद्रोह कब और क्यों

कारण :

अंग्रेज़ अधिकारी बंगाल तथा बिहार के ज़मींदारों से भूमि लेकर बिना पैसा दिये ही किसानों को नील की खेती में काम करने के लिए विवश करते थे, तथा नील उत्पादक किसानों को एक मामूली सी रक़म अग्रिम देकर उनसे करारनामा लिखा लेते थे, जो बाज़ार भाव से बहुत कम दाम पर हुआ करता था। इस प्रथा को ‘ददनी प्रथा’ कहा जाता था, जबकि किसान अपनी उपजाऊ जमीन पर चावल की खेती करना चाहते थे।

गाँधी-मार्ग, जुलाई-अगस्त 2015

कहते हैं नील की खेती भारत से ही विलायत गई थी। इसका अंग्रेजी नाम ‘इंडिगो’ है। मूल शब्द ‘इंडिकम’ है जो ‘इण्डिया’ से निकला है। विलायत में यह रंग अत्यन्त लोकप्रिय होकर व्यापार के लिए एक अनमोल वस्तु बन गया था। जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में व्यापार करने आती है, तो सन 1600 में इसके व्यापार की मुख्य वस्तु नील होती है। अनेक वर्षों तक इसका व्यापार फलता-फूलता रहता है। भारत में इसकी खेती सघन रूप से करने के लिए 18वीं शताब्दी के अन्त में कम्पनी गोरे खेतिहरों को बड़ी-बड़ी रकमें उधार में देती है। पहले-पहल यह खेती बंगाल में पसरती है और तभी से भारतीय किसानों पर अत्याचार भी बरसने लगता है।'

 कोहिनूर हीरे का इतिहास  : हिंदी में  Download PDF

विश्व बाजार में कृत्रिम नील 1897 में ही आ जाता है। परिणाम यह होता है कि नील का भाव प्रति मन 234 रुपए से गिरकर 100 रुपए हो जाता है। लेकिन 1911 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ जाने पर जर्मनी से कृत्रिम नील आना बंद हो जाने पर बिहार नील का भाव उछलकर 675 रुपए प्रति मन हो जाता है। निलहे गोरों की बाछें खिल जाती हैं। अब नील की खेती के लिए अत्याचार का दूसरा दौर शुरू हो जाता है। बेतिया राज का प्रबंध यूरोपियनों के हाथों में रहने के कारण यहाँ के निलहों को मनमानी करने की पूरी छूट है। जहाँ सबसे अधिक दमन है, वहीं सबसे अधिक उग्र विद्रोह होता है।

उस अत्याचार के बारे में पहली झलक एक अंग्रेज अफसर ही देता है। फरीदपुर में पदस्थापित तत्कालीन बंगाल सिविल सर्विस के एक डिप्टी मजिस्ट्रेट ई.डी. लाटूर थे। वे सन 1848 में लिखते हैं कि ‘मानव रक्त से रंजित हुए बिना नील की कोई गाँठ इंग्लैंड नहीं पहुँचती है।’ इस अत्याचार की आवाज जब अंग्रेजी सरकार के कानों में जाती है तो उसकी जाँच के लिए सन 1860 में एक नील आयोग बिठाया जाता है। आयोग के समक्ष आस्ले इडेन नामक एक अन्य अंग्रेज डिप्टी मजिस्ट्रेट अपने सुझाव में निलहे गोरों की घिनौनी करतूतों की सूची देकर कहते हैं कि जब गोरों पर मुकदमा होता है तो न्यायालय में न्याय भी भुला दिया जाता है। बाद में इडेन बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर बने और सर आस्ले इडेन कहलाते हैं। उन्हीं के नाम पर कलकत्ता का मशहूर इडेन गार्डन है।

नील की खेती से परेशान किसान इस आयोग से कहते हैं कि हमारा गला भी काट दिया जाएगा तो भी हम नील नहीं बोयेंगे। वे कहते हैं कि हम उस देश में चले जाएँगे जहाँ नील के पौधे कभी देखे और बोये नहीं जाते। चीखते-चिल्लाते वे किसान कहते हैं कि हम किसी के लिए नील नहीं बोयेंगे- अपने माँ-बाप के लिए भी नहीं, हम गोली खायेंगे लेकिन नील नहीं बोयेंगे।


 कोहिनूर हीरे का इतिहास  : हिंदी में  Download PDF

Post a Comment

0 Comments